श्री मद गुरुभ्यो नमः

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Thursday, February 17, 2011

हिंदी की सूक्तियां-धन / अर्थ / अर्थ महिमा / अर्थ निन्दा / अर्थ शास्त्र /सम्पत्ति / ऐश्वर्य


धन / अर्थ / अर्थ महिमा / अर्थ निन्दा / अर्थ शास्त्र /सम्पत्ति / ऐश्वर्य
दान , भोग और नाश ये धन की तीन गतियाँ हैं । जो न देता है और न ही भोगता है, उसके धन की तृतीय गति ( नाश ) होती है ।
— भर्तृहरि
हिरण्यं एव अर्जय , निष्फलाः कलाः । ( सोना ( धन ) ही कमाओ , कलाएँ निष्फल है )
— महाकवि माघ
सर्वे गुणाः कांचनं आश्रयन्ते । ( सभी गुण सोने का ही सहारा लेते हैं )
- भर्तृहरि
संसार के व्यवहारों के लिये धन ही सार-वस्तु है । अत: मनुष्य को उसकी प्राप्ति के लिये युक्ति एवं साहस के साथ यत्न करना चाहिये ।
— शुक्राचार्य
आर्थस्य मूलं राज्यम् । ( राज्य धन की जड है )
— चाणक्य
मनुष्य मनुष्य का दास नही होता , हे राजा , वह् तो धन का दास् होता है ।
— पंचतंत्र
अर्थो हि लोके पुरुषस्य बन्धुः । ( संसार मे धन ही आदमी का भाई है )
— चाणक्य
जहाँ सुमति तँह सम्पति नाना, जहाँ कुमति तँह बिपति निधाना ।
— गो. तुलसीदास
क्षणशः कण्शश्चैव विद्याधनं अर्जयेत ।
( क्षण-ख्षण करके विद्या और कण-कण करके धन का अर्जन करना चाहिये ।
रुपए ने कहा, मेरी फिक्र न कर – पैसे की चिन्ता कर.
-– चेस्टर फ़ील्ड
बढ़त बढ़त सम्पति सलिल मन सरोज बढ़ि जाय।
घटत घटत पुनि ना घटै तब समूल कुम्हिलाय।।
——(मुझे याद नहीं)
जहां मूर्ख नहीं पूजे जाते, जहां अन्न की सुरक्षा की जाती है और जहां परिवार में कलह नहीं होती, वहां लक्ष्मी निवास करती है ।
–अथर्ववेद
मुक्त बाजार ही संसाधनों के बटवारे का सवाधिक दक्ष और सामाजिक रूप से इष्टतम तरीका है ।
स्वार्थ या लाभ ही सबसे बडा उत्साहवर्धक ( मोटिवेटर ) या आगे बढाने वाला बल है ।
मुक्त बाजार उत्तरदायित्वों के वितरण की एक पद्धति है ।
सम्पत्ति का अधिकार प्रदान करने से सभ्यता के विकास को जितना योगदान मिला है उतना मनुष्य द्वारा स्थापित किसी दूसरी संस्था से नहीं ।
यदि किसी कार्य को पर्याप्त रूप से छोटे-छोटे चरणों मे बाँट दिया जाय तो कोई भी काम पूरा किया जा सकता है ।



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