श्री मद गुरुभ्यो नमः

श्री मद गुरुभ्यो नमः

Tuesday, August 24, 2010

कुछ छूटते हुए अंश

भारत और संस्कृत
किसी भी देश में अनुसन्धान और वैज्ञानिक कार्य उसी देश के मनोभाव और स्वाभाव के अनुसार होना ज्यादा उचित होता है | किन्तु भारत देश का यह दुर्भाग्य कि हम स्वतंत्र होते हुए भी अपने विचारों को और कार्यों को बताने के लिए भी विदेशी बातों का सहारा लेते है | यहाँ कहने का यह तात्पर्य नहीं है कि ज्ञान में देश क्या ? और विदेश क्या ?
परन्तु हमारे प्राचीन वैज्ञानिकता का नया नाम देकर उसे विदेशी माध्यम से प्रस्तुत करना कहाँ तक उचित होगा ?
यदि हम अपने भारतीय विज्ञानं को कभी भी अनुशीलन करें तो मालूम होगा कि हमारे ऋषियों ने कितना प्रयास किया और कितना तप करके हमे वह ज्ञान सौपा | जिस ज्ञान को आज हम उनका नाम तक नहीं दे पा रहे हैं | यह प्रश्न मुझसे आपसे सभी से उतना ही करणीय है जितना की हमारा भारत से सम्बन्ध | और वह सम्बन्ध संस्कृत से भी उतना ही है क्योंकि भारत संस्कृत से ही भारत है |
भारत की विश्व गुरुता या सोने की चिड़िया होना आज की दौड़ पर नहीं सिद्ध होता | भारत अपने ज्ञान ,संस्कृत भाषा , अपने तप, अपने शौर्य, और अपने कार्यों के नाम से जाना जाता है | यदि हम थोडा सा इसे जानने का प्रयास करेंगे तो हम निश्चित ही इसकी विशेषताओं से प्रभावित होंगे और उसे मानने के लिए तैयार होंगे |
क्रमशः ...............................................

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