Tuesday, August 31, 2010
Monday, August 30, 2010
PHYSICS IN SANSKRIT
CAUSE &
>EFFECT
कारणा-भावात कार्याभावः| न तु कार्यभावात कारणा-भावः||
Vaiseshikadarshanam1.2
Cause > Event> Effect
There is no effect possible without a cause.But the absence of effect
does not mean the absence of cause.
The text also substantiates the above fact with an example : Applying a force (less than needed to overcome friction) will not make a body move.In this case ,the cause (the force) is present but
not the effect(motion).
>EFFECT
कारणा-भावात कार्याभावः| न तु कार्यभावात कारणा-भावः||
Vaiseshikadarshanam1.2
Cause > Event> Effect
There is no effect possible without a cause.But the absence of effect
does not mean the absence of cause.
The text also substantiates the above fact with an example : Applying a force (less than needed to overcome friction) will not make a body move.In this case ,the cause (the force) is present but
not the effect(motion).
Sunday, August 29, 2010
PHYSICS IN SANSKRIT
Origin of Matter
तस्माद वा एतस्माद आत्मनः आकाशः संभूतः | आकाशात वायु:| वायो:अग्निः | अग्ने: आपः | अद्भ्यः पृथिवी |
(Taittariya upanishad Brahmananda-Valli Anuvak 1)
From That ( Absolute Cause) space came,From which wind came,from wind fire came,from fire water came, from water earth came.
The sequence of the creation of matter is akasha,vayu,agni,Apa,pruthivi
[ Modern physics gives this sequence as plasma,gas,energy,liquide and solid it also states the interconvertability of matter and energy .]
तस्माद वा एतस्माद आत्मनः आकाशः संभूतः | आकाशात वायु:| वायो:अग्निः | अग्ने: आपः | अद्भ्यः पृथिवी |
(Taittariya upanishad Brahmananda-Valli Anuvak 1)
From That ( Absolute Cause) space came,From which wind came,from wind fire came,from fire water came, from water earth came.
The sequence of the creation of matter is akasha,vayu,agni,Apa,pruthivi
[ Modern physics gives this sequence as plasma,gas,energy,liquide and solid it also states the interconvertability of matter and energy .]
पृथ्वी का गोलत्व
आर्य-भट्ट ने अपने ग्रन्थ के चतुर्थ प्रकरण गोलपाद में यह घोषणा की है कि पृथिवी गोल है और वह अपनी धुरी पर परिभ्रमण करती रहती है |
यह घोषणा करनेवाले वे विश्व में प्रथम व्यक्ति थे | उन्होंने पृथिवी के आकार,गति,एवं परिधि ४९६७ योजन और व्यास १५८१ योजन बताया है | एक योजन का मान ५ मील होने के अनुसार दोनों क्रमशः २४८३५ मील और ७९०५ मील होते हैं |
यह घोषणा करनेवाले वे विश्व में प्रथम व्यक्ति थे | उन्होंने पृथिवी के आकार,गति,एवं परिधि ४९६७ योजन और व्यास १५८१ योजन बताया है | एक योजन का मान ५ मील होने के अनुसार दोनों क्रमशः २४८३५ मील और ७९०५ मील होते हैं |
Thursday, August 26, 2010
प्रकाश की गति का ज्ञान भी निश्चित हुआ है भारत में .
..सूर्य की किरणों को पृथिवी पर पहुँचने में जितना समय लगता है वह प्रकाश की गति कहलाता है | आधुनिक वैज्ञानिक बहुत प्रयासों के बाद यह निश्चित कर पाए| लेकिन यह तथ्य भी हमारे संस्कृत भाषा के ऋग्वेद में पहले ही निश्चित कर दिया था | ऋग्वेद के १-५०-४ में स्पष्ट रूप से इसका वर्णन है -यदि हम इस मन्त्र का सायन भाष्य देखें तो यह तथ्य सामने आता है-"तथा च स्मर्यते -योजनानाम सह्श्रे द्वे द्वे शते च योजने | एकेन निमिष-अर्धेन क्रममान नमोस्तुते |(सायण भाष्य ऋग्वेद )
अर्थात- सूर्य किरणे ( प्रकाश)२२०२ योजन आधे निमेष में यात्रा करते हैं |सर मो.शिर विलियम्स १ योजन को ९ मील मानते हैं | भारत सरकार के अनुसार ९.०६२५ यह मील है | इस के अनुसार प्रकाश की गति -१८६४१३.२२ मील प्रति सेकेण्ड निश्चित होगी| जबकि मान्य गति - १८६३००मील है | इस प्रकार सायण के द्वारा बताई गई गति लगभग वही है|
सायण का काल 15 वीं शताब्दी है और यह मान्य सिद्धांत २० वीं सदी का है |
अर्थात- सूर्य किरणे ( प्रकाश)२२०२ योजन आधे निमेष में यात्रा करते हैं |सर मो.शिर विलियम्स १ योजन को ९ मील मानते हैं | भारत सरकार के अनुसार ९.०६२५ यह मील है | इस के अनुसार प्रकाश की गति -१८६४१३.२२ मील प्रति सेकेण्ड निश्चित होगी| जबकि मान्य गति - १८६३००मील है | इस प्रकार सायण के द्वारा बताई गई गति लगभग वही है|
सायण का काल 15 वीं शताब्दी है और यह मान्य सिद्धांत २० वीं सदी का है |
Wednesday, August 25, 2010
संस्कृत में विज्ञानं
गुरुत्वाकर्षण शक्ति का ज्ञान
इसका संकेत नारदीय सूक्त में प्राप्त होता है | तथापि इस विषय में स्पष्ट
उल्लेख प्रश्न-उपनिषद में मिलता है | उसमें कहा गया है - पृथिवी की शक्ति
मनुष्य को खड़ा रखने में अपान वायु की सहायता करती है |
"आदित्यो ह वै ब्रह्मप्राणाः ,उदयत्येष ह्येनं चाक्षुषम प्राण............."प्रश्न३/८
इस पर भाष्य लिखते हुए आदि जगतगुरु शंकराचार्य कहते हैं -"यदि पृथिवी इस शरीर को अपानवायु के द्वारा सहायता न करे तो यह शरीर या तो इस ब्रह्माण्ड में तैरेगा या फिर नीचे गिर जायेगा|
यहाँ स्पष्ट है की आदि गुरु को यह बात अच्छी तरह से मालूम थी और वे इस गुरुत्वाकर्षण शक्ति के बारे में अच्छी तरह से जानते थे | अन्यथा वे इतनी विशद व्याख्या केवल कल्पना के आधार पर कैसे कर सकते थे ? शंकराचार्य का काल ७-९ वीं सदी मना है | तो क्या हम अब भी यह ही कहेंगे
कि न्यूटन ही इस सिद्धांत के प्रतिपादक हैं | यदि हम ऐसा कहते हैं तो यह
अपने ऋषियों और अपने ही ज्ञान का अपमान होगा |
क्रमशः ...........
आप के विचार आमंत्रित हैं
Tuesday, August 24, 2010
कुछ छूटते हुए अंश
भारत और संस्कृत
किसी भी देश में अनुसन्धान और वैज्ञानिक कार्य उसी देश के मनोभाव और स्वाभाव के अनुसार होना ज्यादा उचित होता है | किन्तु भारत देश का यह दुर्भाग्य कि हम स्वतंत्र होते हुए भी अपने विचारों को और कार्यों को बताने के लिए भी विदेशी बातों का सहारा लेते है | यहाँ कहने का यह तात्पर्य नहीं है कि ज्ञान में देश क्या ? और विदेश क्या ?
परन्तु हमारे प्राचीन वैज्ञानिकता का नया नाम देकर उसे विदेशी माध्यम से प्रस्तुत करना कहाँ तक उचित होगा ?
यदि हम अपने भारतीय विज्ञानं को कभी भी अनुशीलन करें तो मालूम होगा कि हमारे ऋषियों ने कितना प्रयास किया और कितना तप करके हमे वह ज्ञान सौपा | जिस ज्ञान को आज हम उनका नाम तक नहीं दे पा रहे हैं | यह प्रश्न मुझसे आपसे सभी से उतना ही करणीय है जितना की हमारा भारत से सम्बन्ध | और वह सम्बन्ध संस्कृत से भी उतना ही है क्योंकि भारत संस्कृत से ही भारत है |
भारत की विश्व गुरुता या सोने की चिड़िया होना आज की दौड़ पर नहीं सिद्ध होता | भारत अपने ज्ञान ,संस्कृत भाषा , अपने तप, अपने शौर्य, और अपने कार्यों के नाम से जाना जाता है | यदि हम थोडा सा इसे जानने का प्रयास करेंगे तो हम निश्चित ही इसकी विशेषताओं से प्रभावित होंगे और उसे मानने के लिए तैयार होंगे |
क्रमशः ...............................................
किसी भी देश में अनुसन्धान और वैज्ञानिक कार्य उसी देश के मनोभाव और स्वाभाव के अनुसार होना ज्यादा उचित होता है | किन्तु भारत देश का यह दुर्भाग्य कि हम स्वतंत्र होते हुए भी अपने विचारों को और कार्यों को बताने के लिए भी विदेशी बातों का सहारा लेते है | यहाँ कहने का यह तात्पर्य नहीं है कि ज्ञान में देश क्या ? और विदेश क्या ?
परन्तु हमारे प्राचीन वैज्ञानिकता का नया नाम देकर उसे विदेशी माध्यम से प्रस्तुत करना कहाँ तक उचित होगा ?
यदि हम अपने भारतीय विज्ञानं को कभी भी अनुशीलन करें तो मालूम होगा कि हमारे ऋषियों ने कितना प्रयास किया और कितना तप करके हमे वह ज्ञान सौपा | जिस ज्ञान को आज हम उनका नाम तक नहीं दे पा रहे हैं | यह प्रश्न मुझसे आपसे सभी से उतना ही करणीय है जितना की हमारा भारत से सम्बन्ध | और वह सम्बन्ध संस्कृत से भी उतना ही है क्योंकि भारत संस्कृत से ही भारत है |
भारत की विश्व गुरुता या सोने की चिड़िया होना आज की दौड़ पर नहीं सिद्ध होता | भारत अपने ज्ञान ,संस्कृत भाषा , अपने तप, अपने शौर्य, और अपने कार्यों के नाम से जाना जाता है | यदि हम थोडा सा इसे जानने का प्रयास करेंगे तो हम निश्चित ही इसकी विशेषताओं से प्रभावित होंगे और उसे मानने के लिए तैयार होंगे |
क्रमशः ...............................................
राजा भोज
भोपाल नरेश राजा भोज संस्कृत के बहुत ही अच्छे विद्वान थे |इनका कहना था यदि कोई उच्च कुल में भी उत्पन्न होकर यदि मूर्ख है तो वाह हमारे राज्य में नहीं रह सकता और यदि कोई नीच कुल में भी उत्पन्न है तो वह हमारे राज्य में रहने का अधिकारी है | इस बात से यह सिद्ध होता है कि राजा भोज विद्वानों और बुद्धिमानों का आदर करते थे और उन्हें संरक्षण भी देते थे | राजा भोज ने स्वयं कई ग्रन्थ लिखे हैं | राजा भोज के बारे में बताता यह निम्न अंश ...........
भोज की वृत्ति का योग के अन्य व्याख्याकारों ने भी प्रचुरता से उल्लेख किया है। नागोजिभट्ट (विक्रमसंवत 1772) की वृत्ति में 1/46, 2/5, 2/12 एवं 3/25 आदि स्थलों पर भोजवृत्ति का उल्लेख किया गया है।
भोजवृत्ति योगविद्वज्जनों के बीच समादरणीय एवं प्रसिद्ध है। योगग्रन्थ के इस सुवासित पुष्प में स्वग्रन्थ के रचनाकार होने का स्वंय उल्लेख किया है -
“धारेश्वर-भोजराज-विरचितायां राजामार्तण्डाभिधानायाम् ”
जिससे अभिप्राय है कि धारेश्वर भोजराज राजा मार्तण्ड (जिन्हें इस नाम से अभिहित किया जाता है) के द्वारा विरचित योग ग्रन्थ में....। मार्तण्ड से अभिप्राय – सिंह । भोज का दूसरा अभिहित नाम रणरंगमल्ल का भी उल्लेख ग्रन्थ की प्रस्तावना-श्लोक की पाँचवीं पंक्ति में मिलता है।
ऐसा प्रतीत होता है कि भोज शैव भक्त भी रहे हों क्योंकि तृतीय पाद के मंगलाचरणश्लोक में आपने “भूतनाथः स भूतये” एवं ग्रन्थारम्भ के मंगलाचरण के पद्यों में “देहार्धयोगः शिवयोः......” का सश्रद्धया उल्लेख किया है। आप विंध्यवासी थे क्योंकि एक स्थल भोजराज द्वारा कहा गया है – “यह अभिप्राय मेरे विंध्यवासी द्वारा कहा गया है ”।
व्याकरण, धर्मशास्त्र, शैवदर्शन, ज्योतिष, वास्तुशास्त्र, रणविद्या आदि विषयों पर आपके ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। प्रसिद्ध धर्मशास्त्र ग्रन्थ याज्ञवल्क्यस्मृति के लब्धप्रतिष्ठित व्याख्याकार अर्थात् मितक्षराकार विज्ञानेश्वर आपके सभा में थे, ऐसी प्रसिद्धि है
Monday, August 23, 2010
कालिदास
कालिदास संस्कृत भाषा के सबसे महान कवि और नाटककार थे। कालिदास नाम का शाब्दिक अर्थ है, "काली का सेवक"। कालिदास शिव के भक्त थे। उन्होंने भारत की पौराणिक कथाओं और दर्शन को आधार बनाकर रचनाएं की। कलिदास अपनी अलंकार युक्त सुंदर सरल और मधुर भाषा के लिये विशेष रूप से जाने जाते हैं। उनके ऋतु वर्णन अद्वितीय हैं और उनकी उपमाएं बेमिसाल। संगीत उनके साहित्य का प्रमुख अंग है और रस का सृजन करने में उनकी कोई उपमा नहीं। उन्होंने अपने शृंगार रस प्रधान साहित्य में भी साहित्यिक सौन्दर्य के साथ साथ आदर्शवादी परंपरा और नैतिक मूल्यों का समुचित ध्यान रखा है। उनका नाम अमर है और उनका स्थान वाल्मीकि और व्यास की परम्परा में है। कालिदास ने कई ग्रंथों को लिखा है | और उनके सारे ग्रन्थ उतने ही महत्त्व पूर्ण है | मेघदूत,अभिज्ञान - शाकुंतलम , रघुवंशम,कुमार-संभवं , विक्रम-उर्वशीयम आदि सभी अत्यंत रोचक और अद्भुत हैं |
कहा भी जाता है - काव्येषु-दासः माघः ,कवि कालिदासः,
कहा भी जाता है - काव्येषु-दासः माघः ,कवि कालिदासः,
Saturday, August 14, 2010
Friday, August 13, 2010
सत्संगति का महत्त्व
सत्संगति का महत्त्व
जाड्यं धियो हरति, sinchati वाचि सत्यम ,
मान-उन्नतिम दिशति पापं -अपाकरोति,
चेतः प्रसादयति , दिक्षु तनोति कीर्तिम ,
सत्संगतिः किं न करोति पुंसाम||
जाड्यं धियो हरति, sinchati वाचि सत्यम ,
मान-उन्नतिम दिशति पापं -अपाकरोति,
चेतः प्रसादयति , दिक्षु तनोति कीर्तिम ,
सत्संगतिः किं न करोति पुंसाम||
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