Tuesday, November 23, 2010
संस्कृत -पाठः ५
अधुना वाक्य निर्माणं कुर्मः
बालकः गच्छति
बालकौ गच्छतः
बालकाःगच्छन्ति
एवं बालकः पठति ,बालकौ पठतः,बालकाः पठन्ति ,
अत्र प्रथम पुरुषस्य प्रयोगः अस्ति अतः अहं ,आवां, वयं ,तथा च त्वम्,युवां ,यूयं एतान् विहाय सर्वे आगमिष्यन्ति
क्रमशः.............................
संस्कृत व्याकरण का इतिहास
संस्कृत का व्याकरण वैदिक काल में ही स्वतंत्र विषय बन चुका था। नाम, आख्यात,
उपसर्ग और निपात - ये चार आधारभूत तथ्य यास्क (ई. पू. लगभग 700) के पूर्व ही
व्याकरण में स्थान पा चुके थे। पाणिनि (ई. पू. लगभग 550) के पहले कई व्याकरण
लिखे जा चुके थे जिनमें केवल आपिशलि और काशकृत्स्न के कुछ सूत्र आज
उपलब्ध हैं। किंतु संस्कृत व्याकरण का क्रमबद्ध इतिहास पाणिनि से आरंभ होता है।
पाणिनि ने वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत दोनों के लिए अष्टाध्यायी की
रचना की। अपने लगभग चार हजार सूत्रों में उन्होंने सदा के लिए संस्कृत भाषा
को परिनिष्ठित कर दिया। उनके प्रत्याहार, अनुबंध आदि गणित के नियमों की
तरह सूक्ष्म और वैज्ञानिक हैं। उनके सूत्रों में व्याकरण और भाषाशास्त्र संबंधी
अनेक महत्वपूर्ण तथ्यों का समावेश है। कात्यायन (ई. पू. लगभग 300) ने
पाणिनि के सूत्रों पर लगभग 4295 वार्तिक लिखे। पाणिनि की तरह उनका
भी ज्ञान व्यापक था। उन्होंने लोकजीवन के अनेक शब्दों का संस्कृत में
समावेश किया और न्यायों तथा परिभाषाओं द्वारा व्याकरण का विचारक्षेत्र
विस्तृत किया। कात्यायन के वार्तिकों पर पतंजलि (ई. पू. 150) ने महाभाष्य
की रचना की। महाभाष्य आकर ग्रंथ है। इसमें प्राय: सभी दार्शनिक वादों के
बीज हैं। इसकी शैली अनुपम है। इसपर अनेक टीकाएँ मिलती हैं जिनमें भर्तृहरि
की त्रिपादी, कैयट का प्रदीप और शेषनारायण का "सूक्तिरत्नाकर" प्रसिद्ध हैं।
सूत्रों के अर्थं, उदाहरण आदि समझाने के लिए कई वृत्तिग्रंथ लिखे गए थे जिनमें
काशिका वृत्ति (छठी शताब्दी) महत्वपूर्ण है। जयादित्य और वामन नाम के
आचार्यों की यह एक रमणीय कृति है। इसपर जिनेंद्रबुद्धि (लगभग 650 ई.)
की काशिकाविवरणपंजिका (न्यास) और हरदत्त (ई. 1200) की पदमंजरी उत्तम
टीकाएँ हैं। काशिका की पद्धति पर लिखे गए ग्रंथों में भागवृत्ति (अनुपलब्ध),
पुरुषोत्तमदेव (ग्यारहवीं शताब्दी) की भाषावृत्ति और भट्टोजि दीक्षित (ई. 1600)
का शब्दकौस्तुभ मुख्य हैं। पाणिनि के सूत्रों के क्रम बदलकर कुछ प्रक्रियाग्रंथ भी
लिखे गए जिनमें धर्मकीर्ति (ग्यारहवीं शताब्दी) का रूपावतार, रामचंद्र (ई. 1400)
की प्रक्रियाकौमुदी भट्टोजि दीक्षित की सिद्धांतकौमुदी और नारायण भट्ट
(सोलहवीं शताब्दी) का प्रक्रियासर्वस्व उल्लेखनीय हैं। प्रक्रियाकौमुदी पर
विट्ठलकृत "प्रसाद" और शेषकृष्णरचित "प्रक्रिया प्रकाश" पठनीय हैं। सिद्धांतकौमुदी
की टीकाओं में प्रौढमनोरमा, तत्वबोधिनी और शब्देंदुशेखर उल्लेखनीय हैं।
प्रौढमनोरमा पर हरि दीक्षित का शब्दरत्न भी प्रसिद्ध है। नागेश भट्ट (ई. 1700)
के बाद व्याकरण का इतिहास धूमिल हो जाता है। टीकाग्रंथों पर टीकाएँ मिलती हैं।
किसी किसी में न्यायशैली देख पड़ती है। पाणिनिसंप्रदाय के पिछले दो सौ वर्ष के
प्रसिद्ध टीकाकारों में वैद्यनाथ पायुगुंड, विश्वेश्वर, ओरमभट्ट, भैरव मिश्र, राधवेंद्राचार्य
गजेंद्रगडकर, कृष्णमित्र, नित्यानंद पर्वतीय एवं जयदेव मिश्र के नाम उल्लेखनीय हैं।
पाणिनीय व्याकरण के अतिरिक्त संस्कृत के जो अन्य व्याकरण इस समय उपलब्ध हैं
वे सभी पाणिनि की शैली से प्रभावित हैं। अवश्य ऐंद्र व्याकरण को कुछ लोग पाणिनि
के पूर्व का मानते हैं। किंतु यह मत असंदिग्ध नहीं है। बर्नल के अनुसार ऐंद्र व्याकरण
का संबंध कातंत्र से और तमिल के प्राचीनतम व्याकरण तोल्काप्पियम से है। ऐंद्र
व्याकरण के आधार पर सातवाहन युग में शर्व वर्मा ने कातंत्र व्याकरण की रचना की।
इसके दूसरे नाम कालापक और कौमार भी हैं। इसपर दुर्गसिंह की टीका प्रसिद्ध है।
चांद्र व्याकरण चंद्रगोमी (ई. 500) की रचना है। इसपर उनकी वृत्ति भी है। इसकी
शैली से काशिकाकार प्रभावित हैं। जैनेंद्र व्याकरण जैन आचार्य देवनंदी
(लगभग छठी शताब्दी) की रचना है। इसपर अभयनंदी की वृत्ति प्रसिद्ध है।
उदाहरण में जैन संप्रदाय के शब्द मिलते हैं। जैनेंद्र व्याकरण के आधार पर किसी
जैन आचार्य ने 9वीं शताब्दी में शाकटायन व्याकरण लिखा और उसपर अमोघवृत्ति
की रचना की। इसपर प्रभावचंद्राचार्य का न्यास और यक्ष वर्मा की वृत्ति प्रसिद्ध हैं।
भोज (ग्यारहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध) का सरस्वती कंठाभरण व्याकरण में वार्तिकों
और गणपाठों को सूत्रों में मिला दिया गया है। पाणिनि के अप्रसिद्ध शब्दों के स्थान
पर सुबोध शब्द रखे गए हैं। इसपर दंडनाथ नारायण की हृदयहारिणी टीका है।
सिद्ध हेम अथवा हेम व्याकरण आचार्य हेमचंद्र (ग्यारहवीं शताब्दी) रचित है।
इसमें संस्कृत के साथ साथ प्राकृत और अपभ्रंश व्याकरण का भी समावेश है।
इसपर ग्रंथकार का न्यास और देवेंद्र सूरि का लघुन्यास उल्लेखनीय हैं। सारस्वत
व्याकरण के कर्ता अनुभूतिस्वरूपाचार्य (तेरहवीं शताब्दी) हैं। इसपर सारस्वत प्रक्रिया
और रघुनाथ का लघुभाष्य ध्यान देने योग्य हैं। इसका प्रचार बिहार में पिछली पीढ़ी
तक था। बोपदेव (तेरहवीं शताब्दी) का मुग्धबोध व्याकरण नितांत सरल है। इसका
प्रचार अभी हाल तक बंगाल में रहा है। पद्मनाभ दत्त ने (15वीं शताब्दी) सुपद्य व्याकरण
लिखा है। शेष श्रीकृष्ण (16वीं शताब्दी) की पदचंद्रिका एक स्वतंत्र व्याकरण है। इस पर
उनकी पदचंद्रिकावृत्ति उल्लेखनीय है। क्रमदोश्वर का संक्षिप्तसार (जौमार) और
रूपगोस्वामी का हरिनामामृत भी स्वतंत्र व्याकरण हैं। कवींद्राचार्य के संग्रह में ब्रह्मव्याकरण,
यमव्याकरण, वरुणव्याकरण, सौम्यव्याकरण और शब्दतर्कव्याकरण के हस्तलेख
थे जिनके बारे में आज विशेष ज्ञान नहीं है। प्रसिद्ध किंतु अनुपलब्ध व्याकरणों में
वामनकृत विश्रांतविद्याधर उल्लेखनीय है।
प्रमुख संस्कृत व्याकरणों के अपने अपने गणपाठ और धातुपाठ हैं। गणपाठ संबंधी
स्वतंत्र ग्रंथों में वर्धमान (12वीं शताब्दी) का गणरत्नमहोदधि और भट्ट यज्ञेश्वर रचित
गणरत्नावली (ई. 1874) प्रसिद्ध हैं। उणादि के विवरणकारों में उज्जवलदत्त प्रमुख हैं।
काशकृत्स्न का धातुपाठ कन्नड भाषा में प्रकाशित है। भीमसेन का धातुपाठ तिब्बती
(भोट) में प्रकाशित है। पूर्णचंद्र का धातुपारायण, मैत्रेयरक्षित (दसवीं शताब्दी) का
धातुप्रदीप, क्षीरस्वामी (दसवीं शताब्दी) की क्षीरतरंगिणी, सायण की माधवीय धातुवृत्ति,
श्रीहर्षकीर्ति की धातुतरंगिणी, बोपदेव का कविकल्पद्रुम, भट्टमल्ल की आख्यातचंद्रिका
विशेष उल्लेखनीय हैं। लिंगबोधक ग्रंथों में पाणिनि, वररुचि, वामन, हेमचंद्र, शाकटायन,
शांतनवाचार्य, हर्षवर्धन आदि के लिंगानुशासन प्रचलित हैं। इस विषय की प्राचीन पुस्तक "
लिंगकारिका" अनुपलब्ध है।
से आरंभ होता है जिसके कुछ वाक्य ही आज अवशेष हैं। भर्तृहरि (लगभग ई. 500) का
वाक्यपदीय व्याकरणदर्शन का सर्वोत्कृष्ट ग्रंथ है। स्वोपज्ञवृत्ति के अतिरिक्त इसपर
वृषभदेव (छठी शताब्दी), पुण्यराज (नवीं शताब्दी) और हेलाराज (दसवीं शताब्दी)
की टीकाएँ विश्रुत हैं। कौंडभट्ट (ई. 1600) का वैयाकरणभूषण और नागेश की
वैयाकरण सिद्धांतमंजूषा उल्लेखनीय हैं। नागेश का स्फोटवाद, कृष्णभट्टमौनि
की स्फोटचंद्रिका और भरतमिश्र की स्फोटसिद्धि भी इस विषय के लघुकाय ग्रंथ हैं।
सीरदेव की परिभाषावृत्ति, पुरुषोत्तमदेव की परिभाषावृत्ति, विष्णुशेष का परिभाषाप्रकाश
और नागेश का परिभाषेंदुशेखर पठनीय हैं। पिछले डेढ़ सौ वर्षों में परिभाषेंदुशेखर पर
लगभग 25 टीकाएँ लिखी गई हैं जिनमें गदा, भैरवी, भावार्थदीपिका के अतिरिक्त तात्या
शास्त्री पटवर्धन, गणपति शास्त्री मोकाटे, भास्कर शास्त्री, वासुदेव अभ्यंकर, मन्युदेव,
चिद्रूपाश्रय आदि की टीकाएँ हैं।
1583 से 1588 तक भारत में था, संस्कृत और इटली की भाषा का साम्य
दिखलाया था। किंतु संस्कृत का नियमबद्ध व्याकरण जर्मन-यहूदी जे. ई.
हाक्सेलेडेन ने लिखा। उसकी अप्रकाशित कृति के आधार पर जर्मन पादरी
पौलिनस ने 1790 में संस्कृत का व्याकरण प्रकाशित किया जिसका नाम "सिद्ध रुबम्"
स्यू ग्रामाटिका संस्कृडामिका" था। फोर्ट विलियम कालेज के अध्यापक डा. विलियम
कैरे ने 1802 में संस्कृत का व्याकरण अँगरेजी में प्रकाशित किया। विलियम कोलब्रुक ने
1805 में, विलकिन्स ने 1808 में, फोरेस्टर ने 1810 में, संस्कृत के व्याकरण लिखे। 1823 में
ओथमार फ्रांक ने लैटिन भाषा में संस्कृत व्याकरण लिखा। 1834 में बोप्प ने जर्मन भाषा में
संस्कृत व्याकरण लिखा जिसका नाम "क्रिटिशे ग्रामाटिक डे संस्कृत स्प्राख" है। बेनफी ने
1863 में, कीलहार्नं ने 1870 में, मॉनिअर विलियम्स ने 1877 में और अमरीका के ह्विटनी ने
1879 में अपने संस्कृत व्याकरण प्रकाशित किए। एल. रेनो ने फ्रेंच भाषा में संस्कृत
व्याकरण (1920) और वैदिक व्याकरण (1952) प्रकाशित किए। गणपाठ और धातुपाठ
के संबंध में वेस्टरगार्द का रेडिसेज लिंग्वा संस्कृता (1841), बोटलिंक का पाणिनि ग्रामाटिक
(1887), लीबिश का धातुपाठ (1920) ओर राबर्टं बिरवे का "डर गणपाठ" (1961) उल्लेखनीय हैं।
यूरोप के विद्वानों की कृतियों में मैकडोनेल का "वैदिक ग्रामर" (1910) और वाकरनागेल का
"आल्ट्इंडिश ग्रामटिक" (3 भाग, 1896-1954) उत्कृष्ट ग्रंथ हैं। अंग्रेजी में लिखित श्री काले का
"हायर संस्कृत ग्रामर" भी प्रसिद्ध है।
संस्कृत व्याकरण का इतिहास पिछले ढाई हजार वर्ष से टीका टिप्पणी के माध्यम से
अविच्छिन्न रूप में अग्रसर होता रहा है। इसे सजीव रखने में उन ज्ञात अज्ञात सहस्रों
विद्वानों का सहयोग रहा है जिन्होंने कोई ग्रंथ तो नहीं लिखा, किंतु अपना जीवन
व्याकरण के अध्यापन में बिताया।
संकलित
व्याकरण में स्थान पा चुके थे। पाणिनि (ई. पू. लगभग 550) के पहले कई व्याकरण
लिखे जा चुके थे जिनमें केवल आपिशलि और काशकृत्स्न के कुछ सूत्र आज
उपलब्ध हैं। किंतु संस्कृत व्याकरण का क्रमबद्ध इतिहास पाणिनि से आरंभ होता है।
पाणिनि ने वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत दोनों के लिए अष्टाध्यायी की
रचना की। अपने लगभग चार हजार सूत्रों में उन्होंने सदा के लिए संस्कृत भाषा
को परिनिष्ठित कर दिया। उनके प्रत्याहार, अनुबंध आदि गणित के नियमों की
तरह सूक्ष्म और वैज्ञानिक हैं। उनके सूत्रों में व्याकरण और भाषाशास्त्र संबंधी
अनेक महत्वपूर्ण तथ्यों का समावेश है। कात्यायन (ई. पू. लगभग 300) ने
पाणिनि के सूत्रों पर लगभग 4295 वार्तिक लिखे। पाणिनि की तरह उनका
भी ज्ञान व्यापक था। उन्होंने लोकजीवन के अनेक शब्दों का संस्कृत में
समावेश किया और न्यायों तथा परिभाषाओं द्वारा व्याकरण का विचारक्षेत्र
विस्तृत किया। कात्यायन के वार्तिकों पर पतंजलि (ई. पू. 150) ने महाभाष्य
की रचना की। महाभाष्य आकर ग्रंथ है। इसमें प्राय: सभी दार्शनिक वादों के
बीज हैं। इसकी शैली अनुपम है। इसपर अनेक टीकाएँ मिलती हैं जिनमें भर्तृहरि
की त्रिपादी, कैयट का प्रदीप और शेषनारायण का "सूक्तिरत्नाकर" प्रसिद्ध हैं।
सूत्रों के अर्थं, उदाहरण आदि समझाने के लिए कई वृत्तिग्रंथ लिखे गए थे जिनमें
काशिका वृत्ति (छठी शताब्दी) महत्वपूर्ण है। जयादित्य और वामन नाम के
आचार्यों की यह एक रमणीय कृति है। इसपर जिनेंद्रबुद्धि (लगभग 650 ई.)
की काशिकाविवरणपंजिका (न्यास) और हरदत्त (ई. 1200) की पदमंजरी उत्तम
टीकाएँ हैं। काशिका की पद्धति पर लिखे गए ग्रंथों में भागवृत्ति (अनुपलब्ध),
पुरुषोत्तमदेव (ग्यारहवीं शताब्दी) की भाषावृत्ति और भट्टोजि दीक्षित (ई. 1600)
का शब्दकौस्तुभ मुख्य हैं। पाणिनि के सूत्रों के क्रम बदलकर कुछ प्रक्रियाग्रंथ भी
लिखे गए जिनमें धर्मकीर्ति (ग्यारहवीं शताब्दी) का रूपावतार, रामचंद्र (ई. 1400)
की प्रक्रियाकौमुदी भट्टोजि दीक्षित की सिद्धांतकौमुदी और नारायण भट्ट
(सोलहवीं शताब्दी) का प्रक्रियासर्वस्व उल्लेखनीय हैं। प्रक्रियाकौमुदी पर
विट्ठलकृत "प्रसाद" और शेषकृष्णरचित "प्रक्रिया प्रकाश" पठनीय हैं। सिद्धांतकौमुदी
की टीकाओं में प्रौढमनोरमा, तत्वबोधिनी और शब्देंदुशेखर उल्लेखनीय हैं।
प्रौढमनोरमा पर हरि दीक्षित का शब्दरत्न भी प्रसिद्ध है। नागेश भट्ट (ई. 1700)
के बाद व्याकरण का इतिहास धूमिल हो जाता है। टीकाग्रंथों पर टीकाएँ मिलती हैं।
किसी किसी में न्यायशैली देख पड़ती है। पाणिनिसंप्रदाय के पिछले दो सौ वर्ष के
प्रसिद्ध टीकाकारों में वैद्यनाथ पायुगुंड, विश्वेश्वर, ओरमभट्ट, भैरव मिश्र, राधवेंद्राचार्य
गजेंद्रगडकर, कृष्णमित्र, नित्यानंद पर्वतीय एवं जयदेव मिश्र के नाम उल्लेखनीय हैं।
पाणिनीय व्याकरण के अतिरिक्त संस्कृत के जो अन्य व्याकरण इस समय उपलब्ध हैं
वे सभी पाणिनि की शैली से प्रभावित हैं। अवश्य ऐंद्र व्याकरण को कुछ लोग पाणिनि
के पूर्व का मानते हैं। किंतु यह मत असंदिग्ध नहीं है। बर्नल के अनुसार ऐंद्र व्याकरण
का संबंध कातंत्र से और तमिल के प्राचीनतम व्याकरण तोल्काप्पियम से है। ऐंद्र
व्याकरण के आधार पर सातवाहन युग में शर्व वर्मा ने कातंत्र व्याकरण की रचना की।
इसके दूसरे नाम कालापक और कौमार भी हैं। इसपर दुर्गसिंह की टीका प्रसिद्ध है।
चांद्र व्याकरण चंद्रगोमी (ई. 500) की रचना है। इसपर उनकी वृत्ति भी है। इसकी
शैली से काशिकाकार प्रभावित हैं। जैनेंद्र व्याकरण जैन आचार्य देवनंदी
(लगभग छठी शताब्दी) की रचना है। इसपर अभयनंदी की वृत्ति प्रसिद्ध है।
उदाहरण में जैन संप्रदाय के शब्द मिलते हैं। जैनेंद्र व्याकरण के आधार पर किसी
जैन आचार्य ने 9वीं शताब्दी में शाकटायन व्याकरण लिखा और उसपर अमोघवृत्ति
की रचना की। इसपर प्रभावचंद्राचार्य का न्यास और यक्ष वर्मा की वृत्ति प्रसिद्ध हैं।
भोज (ग्यारहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध) का सरस्वती कंठाभरण व्याकरण में वार्तिकों
और गणपाठों को सूत्रों में मिला दिया गया है। पाणिनि के अप्रसिद्ध शब्दों के स्थान
पर सुबोध शब्द रखे गए हैं। इसपर दंडनाथ नारायण की हृदयहारिणी टीका है।
सिद्ध हेम अथवा हेम व्याकरण आचार्य हेमचंद्र (ग्यारहवीं शताब्दी) रचित है।
इसमें संस्कृत के साथ साथ प्राकृत और अपभ्रंश व्याकरण का भी समावेश है।
इसपर ग्रंथकार का न्यास और देवेंद्र सूरि का लघुन्यास उल्लेखनीय हैं। सारस्वत
व्याकरण के कर्ता अनुभूतिस्वरूपाचार्य (तेरहवीं शताब्दी) हैं। इसपर सारस्वत प्रक्रिया
और रघुनाथ का लघुभाष्य ध्यान देने योग्य हैं। इसका प्रचार बिहार में पिछली पीढ़ी
तक था। बोपदेव (तेरहवीं शताब्दी) का मुग्धबोध व्याकरण नितांत सरल है। इसका
प्रचार अभी हाल तक बंगाल में रहा है। पद्मनाभ दत्त ने (15वीं शताब्दी) सुपद्य व्याकरण
लिखा है। शेष श्रीकृष्ण (16वीं शताब्दी) की पदचंद्रिका एक स्वतंत्र व्याकरण है। इस पर
उनकी पदचंद्रिकावृत्ति उल्लेखनीय है। क्रमदोश्वर का संक्षिप्तसार (जौमार) और
रूपगोस्वामी का हरिनामामृत भी स्वतंत्र व्याकरण हैं। कवींद्राचार्य के संग्रह में ब्रह्मव्याकरण,
यमव्याकरण, वरुणव्याकरण, सौम्यव्याकरण और शब्दतर्कव्याकरण के हस्तलेख
थे जिनके बारे में आज विशेष ज्ञान नहीं है। प्रसिद्ध किंतु अनुपलब्ध व्याकरणों में
वामनकृत विश्रांतविद्याधर उल्लेखनीय है।
प्रमुख संस्कृत व्याकरणों के अपने अपने गणपाठ और धातुपाठ हैं। गणपाठ संबंधी
स्वतंत्र ग्रंथों में वर्धमान (12वीं शताब्दी) का गणरत्नमहोदधि और भट्ट यज्ञेश्वर रचित
गणरत्नावली (ई. 1874) प्रसिद्ध हैं। उणादि के विवरणकारों में उज्जवलदत्त प्रमुख हैं।
काशकृत्स्न का धातुपाठ कन्नड भाषा में प्रकाशित है। भीमसेन का धातुपाठ तिब्बती
(भोट) में प्रकाशित है। पूर्णचंद्र का धातुपारायण, मैत्रेयरक्षित (दसवीं शताब्दी) का
धातुप्रदीप, क्षीरस्वामी (दसवीं शताब्दी) की क्षीरतरंगिणी, सायण की माधवीय धातुवृत्ति,
श्रीहर्षकीर्ति की धातुतरंगिणी, बोपदेव का कविकल्पद्रुम, भट्टमल्ल की आख्यातचंद्रिका
विशेष उल्लेखनीय हैं। लिंगबोधक ग्रंथों में पाणिनि, वररुचि, वामन, हेमचंद्र, शाकटायन,
शांतनवाचार्य, हर्षवर्धन आदि के लिंगानुशासन प्रचलित हैं। इस विषय की प्राचीन पुस्तक "
लिंगकारिका" अनुपलब्ध है।
संस्कृत व्याकरण का दार्शनिक विवेचन
संस्कृत व्याकरण के दार्शनिक पक्ष का विवेचन 'व्याडि (लगभग ई. पू. 400) के "संग्रह"से आरंभ होता है जिसके कुछ वाक्य ही आज अवशेष हैं। भर्तृहरि (लगभग ई. 500) का
वाक्यपदीय व्याकरणदर्शन का सर्वोत्कृष्ट ग्रंथ है। स्वोपज्ञवृत्ति के अतिरिक्त इसपर
वृषभदेव (छठी शताब्दी), पुण्यराज (नवीं शताब्दी) और हेलाराज (दसवीं शताब्दी)
की टीकाएँ विश्रुत हैं। कौंडभट्ट (ई. 1600) का वैयाकरणभूषण और नागेश की
वैयाकरण सिद्धांतमंजूषा उल्लेखनीय हैं। नागेश का स्फोटवाद, कृष्णभट्टमौनि
की स्फोटचंद्रिका और भरतमिश्र की स्फोटसिद्धि भी इस विषय के लघुकाय ग्रंथ हैं।
सीरदेव की परिभाषावृत्ति, पुरुषोत्तमदेव की परिभाषावृत्ति, विष्णुशेष का परिभाषाप्रकाश
और नागेश का परिभाषेंदुशेखर पठनीय हैं। पिछले डेढ़ सौ वर्षों में परिभाषेंदुशेखर पर
लगभग 25 टीकाएँ लिखी गई हैं जिनमें गदा, भैरवी, भावार्थदीपिका के अतिरिक्त तात्या
शास्त्री पटवर्धन, गणपति शास्त्री मोकाटे, भास्कर शास्त्री, वासुदेव अभ्यंकर, मन्युदेव,
चिद्रूपाश्रय आदि की टीकाएँ हैं।
यूरोप के विद्वानों का योगदान
संस्कृत व्याकरण के इतिहास में यूरोप के विद्वानों का भी योग है। पी. सासेती ने, जो1583 से 1588 तक भारत में था, संस्कृत और इटली की भाषा का साम्य
दिखलाया था। किंतु संस्कृत का नियमबद्ध व्याकरण जर्मन-यहूदी जे. ई.
हाक्सेलेडेन ने लिखा। उसकी अप्रकाशित कृति के आधार पर जर्मन पादरी
पौलिनस ने 1790 में संस्कृत का व्याकरण प्रकाशित किया जिसका नाम "सिद्ध रुबम्"
स्यू ग्रामाटिका संस्कृडामिका" था। फोर्ट विलियम कालेज के अध्यापक डा. विलियम
कैरे ने 1802 में संस्कृत का व्याकरण अँगरेजी में प्रकाशित किया। विलियम कोलब्रुक ने
1805 में, विलकिन्स ने 1808 में, फोरेस्टर ने 1810 में, संस्कृत के व्याकरण लिखे। 1823 में
ओथमार फ्रांक ने लैटिन भाषा में संस्कृत व्याकरण लिखा। 1834 में बोप्प ने जर्मन भाषा में
संस्कृत व्याकरण लिखा जिसका नाम "क्रिटिशे ग्रामाटिक डे संस्कृत स्प्राख" है। बेनफी ने
1863 में, कीलहार्नं ने 1870 में, मॉनिअर विलियम्स ने 1877 में और अमरीका के ह्विटनी ने
1879 में अपने संस्कृत व्याकरण प्रकाशित किए। एल. रेनो ने फ्रेंच भाषा में संस्कृत
व्याकरण (1920) और वैदिक व्याकरण (1952) प्रकाशित किए। गणपाठ और धातुपाठ
के संबंध में वेस्टरगार्द का रेडिसेज लिंग्वा संस्कृता (1841), बोटलिंक का पाणिनि ग्रामाटिक
(1887), लीबिश का धातुपाठ (1920) ओर राबर्टं बिरवे का "डर गणपाठ" (1961) उल्लेखनीय हैं।
यूरोप के विद्वानों की कृतियों में मैकडोनेल का "वैदिक ग्रामर" (1910) और वाकरनागेल का
"आल्ट्इंडिश ग्रामटिक" (3 भाग, 1896-1954) उत्कृष्ट ग्रंथ हैं। अंग्रेजी में लिखित श्री काले का
"हायर संस्कृत ग्रामर" भी प्रसिद्ध है।
संस्कृत व्याकरण का इतिहास पिछले ढाई हजार वर्ष से टीका टिप्पणी के माध्यम से
अविच्छिन्न रूप में अग्रसर होता रहा है। इसे सजीव रखने में उन ज्ञात अज्ञात सहस्रों
विद्वानों का सहयोग रहा है जिन्होंने कोई ग्रंथ तो नहीं लिखा, किंतु अपना जीवन
व्याकरण के अध्यापन में बिताया।
संकलित
Thursday, November 18, 2010
पुराणों में श्लोक संख्या
सुखसागर के अनुसारः
(1) ब्रह्मपुराण में श्लोकों की संख्या दस हजार हैं।
(2) पद्मपुराण में श्लोकों की संख्या पचपन हजार हैं।
(3) विष्णुपुराण में श्लोकों की संख्या तेइस हजार हैं।
(4) शिवपुराण में श्लोकों की संख्या चौबीस हजार हैं।
(5) श्रीमद्भावतपुराण में श्लोकों की संख्या अठारह हजार हैं।
(6) नारदपुराण में श्लोकों की संख्या पच्चीस हजार हैं।
(7) मार्कण्डेयपुराण में श्लोकों की संख्या नौ हजार हैं।
(8) अग्निपुराण में श्लोकों की संख्या पन्द्रह हजार हैं।
(9) भविष्यपुराण में श्लोकों की संख्या चौदह हजार पाँच सौ हैं।
(10) ब्रह्मवैवर्तपुराण में श्लोकों की संख्या अठारह हजार हैं।
(11) लिंगपुराण में श्लोकों की संख्या ग्यारह हजार हैं।
(12) वाराहपुराण में श्लोकों की संख्या चौबीस हजार हैं।
(13) स्कन्धपुराण में श्लोकों की संख्या इक्यासी हजार एक सौ हैं।
(14) वामनपुराण में श्लोकों की संख्या दस हजार हैं।
(15) कूर्मपुराण में श्लोकों की संख्या सत्रह हजार हैं।
(16) मत्सयपुराण में श्लोकों की संख्या चौदह हजार हैं।
(17) गरुड़पुराण में श्लोकों की संख्या उन्नीस हजार हैं।
(18) ब्रह्माण्डपुराण में श्लोकों की संख्या बारह हजार हैं।
(2) पद्मपुराण में श्लोकों की संख्या पचपन हजार हैं।
(3) विष्णुपुराण में श्लोकों की संख्या तेइस हजार हैं।
(4) शिवपुराण में श्लोकों की संख्या चौबीस हजार हैं।
(5) श्रीमद्भावतपुराण में श्लोकों की संख्या अठारह हजार हैं।
(6) नारदपुराण में श्लोकों की संख्या पच्चीस हजार हैं।
(7) मार्कण्डेयपुराण में श्लोकों की संख्या नौ हजार हैं।
(8) अग्निपुराण में श्लोकों की संख्या पन्द्रह हजार हैं।
(9) भविष्यपुराण में श्लोकों की संख्या चौदह हजार पाँच सौ हैं।
(10) ब्रह्मवैवर्तपुराण में श्लोकों की संख्या अठारह हजार हैं।
(11) लिंगपुराण में श्लोकों की संख्या ग्यारह हजार हैं।
(12) वाराहपुराण में श्लोकों की संख्या चौबीस हजार हैं।
(13) स्कन्धपुराण में श्लोकों की संख्या इक्यासी हजार एक सौ हैं।
(14) वामनपुराण में श्लोकों की संख्या दस हजार हैं।
(15) कूर्मपुराण में श्लोकों की संख्या सत्रह हजार हैं।
(16) मत्सयपुराण में श्लोकों की संख्या चौदह हजार हैं।
(17) गरुड़पुराण में श्लोकों की संख्या उन्नीस हजार हैं।
(18) ब्रह्माण्डपुराण में श्लोकों की संख्या बारह हजार हैं।
Tuesday, October 19, 2010
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य का महत्व
विश्वभर की समस्त प्राचीन भाषाओं में संस्कृत का सर्वप्रथम और उच्च स्थान है। विश्व-साहित्य की पहली पुस्तक ऋग्वेद इसी भाषा का देदीप्यमान रत्न है। भारतीय संस्कृति का रहस्य इसी भाषा में निहित है। संस्कृत का अध्ययन किये बिना भारतीय संस्कृति का पूर्ण ज्ञान कभी सम्भव नहीं है।अनेक प्राचीन एवं अर्वाचीन भाषाओं की यह जननी है। आज भी भारत की समस्त भाषाएँ इसी वात्सल्यमयी जननी के स्तन्यामृत से पुष्टि पा रही हैं। पाश्चात्य विद्वान इसके अतिशय समृद्ध और विपुल साहित्य को देखकर आश्चर्य-चकित रह गए हैं। उन लोगों ने वैज्ञानिक ढंग से इसका अध्ययन किया और गम्भीर गवेषणाएँ की हैं - एवं साथ में विश्व की दूसरी प्राचीन भाषाओं का मन्थन करके वे यदि 'भाषा-विज्ञान' ऐसे अपूर्व शास्त्र का अविष्कार कर सके तो इसका श्रेय संस्कृत भाषा के गम्भीर अध्ययन को है। समस्त भारतीय भाषाओं को जोड़ने वाली कड़ी यदि कोई भाषा है तो वह संस्कृत ही है।
विश्व की समस्त प्राचीन भाषाओं और उनके साहित्य (वाङ्मय) में संस्कृत का अपना विशिष्ट महत्त्व है। यह महत्व अनेक कारणों और दृष्टियों से है। भारत के सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, धार्मिक, अध्यात्मिक, दर्शनिक, सामाजिक और राजनीतिक जीवन एवं विकास के सोपानों की संपूर्ण व्याख्या संस्कृत वाङ्मय के माध्यम से आज उपलब्ध है। सहस्राब्दियों से इस भाषा और इसके वाङ्मय को भारत में सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त रही है। भारत की यह सांस्कृतिक भाषा रही है। सहस्राब्दियों तक समग्र भारत को सांस्कृतिक और भावात्मक एकता में आबद्ध रखने को इस भाषा ने महत्वपूर्ण कार्य किया है। इसी कारण भारतीय मनीषा ने इस भाषा को अमरभाषा या देववाणी के नाम से सम्मानित किया है।
ऋग्वेदसंहिता - पुरातनतम ग्रंथ
ऋग्वेदसंहिता के कतिपय मंडलों की भाषा संस्कृतवाणी का सर्वप्राचीन उपलब्ध स्वरूप है। ऋग्वेदसंहिता इस भाषा का पुरातनतम ग्रंथ है। यहाँ यह भी स्मरण रखना चाहिए कि ऋग्वेदसंहिता केवल संस्कृतभाषा का प्राचीनतम ग्रंथ नहीं है - अपितु वह आर्य जाति की संपूर्ण ग्रंथराशि में भी प्राचीनतम ग्रंथ है। दूसरे शब्दों में, समस्त विश्ववाङ्मय का वह (ऋक्संहिता) सबसे पुरातन उपलब्ध ग्रंथ है। दस मंडलो के इस ग्रंथ का द्वितीय से सप्तम मंडल तक का अंश प्राचीनतम और प्रथम तथा दशम मंडल अपेक्षाकृत अर्वाचीन है। ऋग्वेदकाल से लेकर आज तक उस भाषा की अखंड और अविच्छिन्न परंपरा चली आ रही है। ऋक्संहिता केवल भारतीय वाङ्मय की ही अमूल्य निधि नहीं है - वह समग्र आर्यजाति की, समस्त विश्ववाङ्मय की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विरासत है।विश्व की प्राचीन प्रागैतिहासिक संस्कृतियों को जो अध्ययन हुआ है, उसमें कदाचित् आर्यजाति से संबद्ध अनुशीलन का विशिष्ट स्थान है। इस वैशिष्ट्य का कारण यही ऋग्वेदसंहिता है। आर्यजाति की आद्यतम निवासभूमि, उनकी संस्कृति, सभ्यता, सामाजिक जीवन आदि के विषय में अनुशीलन हुए हैं ऋक्संहिता उन सबका सर्वाधिक महत्वपूर्ण और प्रामाणिक स्रोत रहा है। पश्चिम के विद्वानों ने संस्कृत भाषा और ऋक्संहिता से परिचय पाने के कारण हो तुलनात्मक भाषाविज्ञान के अध्ययन को सही दिशा दी तथा आर्यभाषाओं के भाषाशास्त्रीय विवेचन में प्रौढ़ि एवं शास्त्रीयता का विकास हुआ। भारत के वैदिक ऋषियों और विद्वानों ने अपने वैदिक वाङ्मय को मौखिक और श्रुतिपरंपरा द्वारा प्राचीनतम रूप में अत्यंत सावधानी के साथ सुरक्षित और अधिकृत अनाए रखा। किसी प्रकार के ध्वनिपरक, मात्रापरक यहाँ तक कि स्वर (ऐक्सेंट) परक परिवर्तन से पूर्णत: बचाते रहने का नि:स्वार्थ भाव में वैदिक वेदपाठी सहस्रब्दियों तक अथक प्रयास करते रहे। "वेद" शब्द से मंत्रभाग (संहिताभाग) और "ब्राह्मण" का बोध माना जाता था। "ब्राह्मण" भाग के तीन अंश - (1) ब्राह्मण, (2) आरण्यक और (3) उपनिषद् कहे गए हैं। लिपिकला के विकास से पूर्व मौखिक परंपरा द्वारा वेदपाठियों ने इनका संरक्षण किया। बहुत सा वैदिक वाङ्मय धीरे-धीरे लुप्त हो गया है। पर आज भी जितना उपलब्ध है उसका महत्व असीम है। भारतीय दृष्टि से वेद को अपौरुषेय माना गया है। कहा जाता है, मंत्रद्रष्टा ऋषियों ने मंत्रों का साक्षात्कार किया। आधुनिक जगत् इसे स्वीकार नहीं करता। फिर भी यह माना जाता है कि वेदव्यास ने वैदिक मंत्रों का संकलन करते हुए संहिताओं के रूप में उन्हें प्रतिष्ठित किया। अत: संपूर्ण भारतीय संस्कृति वेदव्यास की युग-युग तक ऋणी बनी रहेगी।
वेद, वेदांग, उपवेद
यहाँ साहित्य शब्द का प्रयोग "वाङ्मय" के लिए है। ऊपर वेद संहिताओं का उल्लेख हुआ है। वेद चार हैं- ऋग्वेद, यजुर्वेंद, सामवेद और अथर्ववेद । इनकी अनेक शाखाएँ थीं जिनमें बहुत सी लुप्त हो चुकी हैं और कुछ सुरक्षित बच गई हैं जिनके संहिताग्रंथ हमें आज उपलब्ध हैं। इन्हीं की शाखाओं से संबद्ध ब्राह्मण, अरण्यक और उपनिषद् नामक ग्रंथों का विशाल वाङ्मय प्राप्त है। वेदांगों में सर्वप्रमुख कल्पसूत्र हैं जिनके अवांतर वर्गों के रूप में और सूत्र, गृह्यसूत्र और धर्मसूत्र (शुल्बसूत्र भी है) का भी व्यापक साहित्य बचा हुआ है। इन्हीं की व्याख्या के रूप में समयानुसार धर्मसंहिताओं और स्मृतिग्रंथों का जो प्रचुर वाङ्मय बना, मनुस्मृति का उनमें प्रमुख स्थान है। वेदांगों में शिक्षा-प्रातिशाख्य, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष, छंद शास्त्र से संबद्ध ग्रंथों का वैदिकोत्तर काल से निर्माण होता रहा है। अब तक इन सबका विशाल साहित्य उपलब्ध है। आज ज्योतिष की तीन शाखाएँ-गणित, सिद्धांत और फलित विकसित हो चुकी हैं और भारतीय गणितज्ञों की विश्व की बहुत सी मौलिक देन हैं। पाणिनि और उनसे पूर्वकालीन तथा परवर्ती वैयाकरणों द्वारा जाने कितने व्याकरणों की रचना हुई जिनमें पाणिनि का व्याकरण-संप्रदाय 2500 वर्षों से प्रतिष्ठित माना गया और आज विश्व भर में उसकी महिमा मान्य हो चुकी है। पाणिनीय व्याकरण को त्रिमुनि व्याकरण भी कहते हैं, क्योकि पाणिनि, कात्यायन और पतञ्जलि इन तीन मुनियों के सत्प्रयास से यह व्याकरण पूर्णता को प्राप्त किया। यास्क का निरुक्त पाणिनि से पूर्वकाल का ग्रंथ है और उससे भी पहले निरुक्तिविद्या के अनेक आचार्य प्रसिद्ध हो चुके थे। शिक्षाप्रातिशाख्य ग्रंथों में कदाचित् ध्वनिविज्ञान, शास्त्र आदि का जितना प्राचीन और वैज्ञानिक विवेचन भारत की संस्कृत भाषा में हुआ है- वह अतुलनीय और आश्चर्यकारी है। उपवेद के रूप में चिकित्साविज्ञान के रूप में आयुर्वेद विद्या का वैदिकाल से ही प्रचार था और उसके पंडिताग्रंथ (चरकसंहिता, सुश्रुतसंहिता, भेडसंहिता आदि) प्राचीन भारतीय मनीषा के वैज्ञानिक अध्ययन की विस्मयकारी निधि है। इस विद्या के भी विशाल वाङ्मय का कालांतर में निर्माण हुआ। इसी प्रकार धनुर्वेद और राजनीति, गांधर्ववेद आदि को उपवेद कहा गया है तथा इनके विषय को लेकर ग्रंथ के रूप में अथवा प्रसंगतिर्गत संदर्भों में पर्याप्त विचार मिलता है।दर्शनशास्त्र
वेद, वेदांग, उपवेद आदि के अतिरिक्त संस्कृत वाङ्मय में दर्शनशास्त्र का वाङ्मय भी अत्यंत विशाल है। पूर्वमीमांसा, उत्तर मीमांसा, सांख्य, योग, वैशेषिक और न्याय-इन छह प्रमुख आस्तिक दर्शनों के अतिरिक्त पचासों से अधिक आस्तिक-नास्तिक दर्शनों के नाम तथा उनके वाङ्मय उपलब्ध हैं जिनमें आत्मा, परमात्मा, जीवन, जगत्पदार्थमीमांसा, तत्वमीमांसा आदि के संदर्भ में अत्यंत प्रौढ़ विचार हुआ है। आस्तिक षड्दर्शनों के प्रवर्तक आचार्यों के रूप में व्यास, जैमिनि, कपिल, पतंजि, कणाद, गौतम आदि के नाम संस्कृत साहित्य में अमर हैं। अन्य आस्तिक दर्शनों में शैव, वैष्णव, तांत्रिक आदि सैकड़ों दर्शन आते हैं। आस्तिकेतर दर्शनों में बौद्धदर्शनों, जैनदर्शनों आदि के संस्कृत ग्रंथ बड़े ही प्रौढ़ और मौलिक हैं। इनमें गंभीर विवेचन हुआ है तथा उनकी विपुल ग्रंथराशि आज भी उपलब्ध है। चार्वाक, लोकायतिक, गार्हपत्य आदि नास्तिक दर्शनों का उल्लेख भी मिलता है। वेदप्रामण्य को माननेवाले आस्तिक और तदितर नास्तिक के आचार्यों और मनीषियों ने अत्यंत प्रचुर मात्रा में दार्शनिक वाङ्मय का निर्माण किया है। दर्शन सूत्र के टीकाकार के रूप में परमादृत शंकराचार्य का नाम संस्कृत साहित्य में अमर है।लौकिक साहित्य
कौटिल्य का अर्थशास्त्र, वात्स्यायन का कामसूत्र, भरत का नाट्य शास्त्र आदि संस्कृत के कुछ ऐसे अमूल्य ग्रंथरत्न हैं - जिनका समस्त संसार के प्राचीन वाङ्मय में स्थान है। श्रीमद्भगवद्गीता का संसार में कहा जाता है - बाईबिल के बाद सर्वाधिक प्रचार है तथा विश्व की उत्कृष्टतम कृतियों में उसका उच्च और अन्यतम स्थान है।वैदिक वाङ्मय के अनंतर सांस्कृतिक दृष्टि से वाल्मीकि के रामायण और व्यास के महाभारत की भारत में सर्वोच्च प्रतिष्ठा मानी गई है। महाभारत का आज उपलब्ध स्वरूप एक लाख पद्यों का है। प्राचीन भारत की पौराणिक गाथाओं, समाजशास्त्रीय मान्यताओं, दार्शनिक आध्यात्मिक दृष्टियों, मिथकों, भारतीय ऐतिहासिक जीवनचित्रों आदि के साथ-साथ पौराणिक इतिहास, भूगोल और परंपरा का महाभारत महाकोश है। वाल्मीकि रामायण आद्य लौकिक महाकाव्य है। उसकी गणना आज भी विश्व के उच्चतम काव्यों में की जाती है। इनके अतिरिक्त अष्टादश पुराणों और उपपुराणादिकों का महाविशाल वाङ्मय है जिनमें पौराणिक या मिथकीय पद्धति से केवल आर्यों का ही नहीं, भारत की समस्त जनता और जातियों का सांस्कृति इतिहास अनुबद्ध है। इन पुराणकार मनीषियों ने भारत और भारत के बाहर से आयात सांस्कृति एवं आध्यात्मिक ऐक्य की प्रतिष्ठा का सहस्राब्दियों तक सफल प्रयास करते हुए भारतीय सांस्कृति को एकसूत्रता में आबद्ध किया है।
संस्कृत के लोकसाहित्य के आदिकवि वाल्मीकि के बाद गद्य-पद्य के लाखों श्रव्यकाव्यों और दृश्यकाव्यरूप नाटकों की रचना होती चली जिनमें अधिकांश लुप्त या नष्ट हो गए। पर जो स्वल्पांश आज उपलब्ध है, सारा विश्व उसका महत्व स्वीकार करता है। कवि कालिदास के अभिज्ञानशाकुतलम् नाटक को विश्व के सर्वश्रेष्ठ नाटकों में स्थान प्राप्त है। अश्वघोष, भास, भवभूति, बाणभट्ट, भारवि, माघ, श्रीहर्ष, शूद्रक, विशाखदत्त आदि कवि और नाटककारों को अपने अपने क्षेत्रों में अत्यंत उच्च स्थान प्राप्त है। सर्जनात्मक नाटकों के विचार से भी भारत का नाटक साहित्य अत्यंत संपन्न और महत्वशाली है। साहित्यशास्त्रीय समालोचन पद्धति के विचार से नाट्यशास्त्र और साहित्यशास्त्र के अत्यंत प्रौढ़, विवेचनपूर्ण और मौलिक प्रचुरसख्यक कृतियों का संस्कृत में निर्माण हुआ है। सिद्धांत की दृष्टि से रसवाद और ध्वनिवाद के विचारों को मौलिक और अत्यंत व्यापक चिंतन माना जाता है। स्तोत्र, नीति और सुभाषित के भी अनेक उच्च कोटि के ग्रंथ हैं। इनके अतिरिक्त शिल्प, कला, संगीत, नृत्य आदि उन सभी विषयों के प्रौढ़ ग्रंथ संस्कृत भाषा के माध्यम से निर्मित हुए हैं जिनका किसी भी प्रकार से आदिमध्यकालीन भारतीय जीवन में किसी पक्ष के साथ संबंध रहा है। ऐसा समझा जाता है कि द्यूतविद्या, चौरविद्या आदि जैसे विषयों पर ग्रंथ बनाना भी संस्कृत पंडितों ने नहीं छोड़ा था। एक बात और थी। भारतीय लोकजीवन में संस्कृत की ऐसी शास्त्रीय प्रतिष्ठा रही है कि ग्रंथों की मान्यता के लिए संस्कृत में रचना को आवश्यक माना जाता था। इसी कारण बौद्धों और जैनों, के दर्शन, धर्मसिद्धांत, पुराणगाथा आदि नाना पक्षों के हजारों ग्रंथों को पाली या प्राकृत में ही नहीं संस्कृत में सप्रास रचना हुई है। संस्कृत विद्या की न जाने कितनी महत्वपूर्ण शाखाओं का यहाँ उल्लख भी अल्पस्थानता के कारण नहीं किया जा सकता है। परंतु निष्कर्ष रूप से पूर्ण विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि भारत की प्राचीन संस्कृत भाषा-अत्यंत समर्थ, संपन्न और ऐतिहासिक महत्व की भाषा है। इस प्राचीन वाणी का वाङ्मय भी अत्यंत व्यापक, सर्वतोमुखी, मानवतावादी तथा परमसंपन्न रहा है। विश्व की भाषा और साहित्य में संस्कृत भाषा और साहित्य का स्थान अत्यंत महत्वशाली है। समस्त विश्व के प्रच्यविद्याप्रेमियों ने संस्कृत को जो प्रतिष्ठा और उच्चासन दिया है, उसके लिए भारत के संस्कृतप्रेमी सदा कृतज्ञ बने रहेंगे।
ऋग्वेदसंहिता
यह संस्कृतभाषा का प्राचीनतम ग्रंथ है ।ये दुनिया के सर्वप्रथम ग्रन्थों में से एक है ।इसका रचना काल ईसा से ४५००-११०० पूर्व माना जाता है ,भारतिय विद्वानों ने वेदों के रचनाकाल का आरंभ ४५०० ई.पू. से माना है परन्तु युरोपिय विद्वान इसका रच्हना काल ईसा से २०००-११०० पूर्व मानते है।महाभारत और रामायण
यह संस्कृतभाषा के प्राचीनतम इतिहास ग्रंथ है, इसे आमतौर पर वैदिक युग में लगभग १४०० इसवी ईसा पूर्व के समय का माना जाता है। विद्वानों ने इसकी तिथी निरधारित करने के लिये इसमें वर्णित सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहणों के बारे में अध्ययन किया है और इसे ३१ वीं सदी इसा पूर्व का मानते हैं, लेकिन मतभेद अभी भी जारी है।संस्कृत साहित्य की विशेषताएँ
संस्कृत साहित्य की महानता को प्रसिद्ध भारतविद जुआन मस्कारो (Juan Mascaro) ने इन शब्दों में वर्णन किया है:Sanskrit literature is a great literature. We have the great songs of the Vedas, the splendor of the Upanishds, the glory of the Bhagvat-Gita, the vastness (100,000 verses) of the Mahabaharat, the tenderness and the herosim found in the Ramayana, the wisdom of the fables and stories of India, the scientific philosophy of Sankhya, the psychological philosophy of Vedanta, the Laws of Manu, the grammar of Panini and other scientific writings, the lyrical poetry, and dramas of Kalidas. Sanskrit literature, on the whole, is a romantic interwoven with idealism and practical wisdom, and with a passionate longing for spiritual vision.
संस्कृत के कुछ अनुकृत ध्येय-वाक्य
अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान | शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् | शरीर ही सभी धर्मों (कर्तव्यों) को पूरा करने का साधन है। |
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (BHU) | विद्ययाऽमृतमश्नुते | विद्या से अमृत की प्राप्ति होती है |
आन्ध्र विश्वविद्यालय | तेजस्विनावधीतमस्तु | हमारा ज्ञान तेजवान बनें। |
वनस्थली विद्यापीठ | सा विद्या या विमुक्तये | विद्या मुक्ति का द्वार है |
बंगाल अभियांत्रिकी एवं विज्ञान विश्वविद्यालय, शिवपुर | उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान् निबोधत | उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक अपने लक्ष्य तक ना पहुँच जाओ |
भारतीय प्रशासनिक कर्मचारी महाविद्यालय, हैदराबाद | संगच्छध्वं संवदध्वम् | साथ चलो, साथ बोलो |
बिरला प्रौद्योगिकी एवं विज्ञान संस्थान, पिलानी | ज्ञानं परमं बलम् | ज्ञान सबसे बड़ा बल है |
केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड | असतो मा सद् गमय | हमें असत से सत की ओर ले चलें |
प्रौद्योगिकी महाविद्यालय, त्रिरिवेन्द्रम | कर्म ज्यायो हि अकर्मण: | कर्म, अकर्म की तुलना में श्रेष्ठ है |
देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इन्दौर | धियो यो नः प्रचोदयात् | दैवीय विद्वता हमारे कर्मो को प्रेरित करे |
गोविंद बल्लभ पंत अभियांत्रिकी महाविद्यालय (पौड़ी) | तमसो मा ज्योतिर्गमय | हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलें |
गुजरात राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय | आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः | |
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान खड़गपुर | योगः कर्मसु कौशलम् | परिश्रम, उत्कृष्टता का मार्ग है |
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मुंबई | ज्ञानं परमं ध्येयम् | |
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान कानपुर | तमसो मा ज्योतिर्गमय | हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलें |
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान चेन्नई | सिद्धिर्भवति कर्मजा | सफ़लता का मूलमंत्र कठिन परिश्रम है |
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान रुड़की | श्रमं विना न किमपि साध्यम् | कोई उपलब्धि प्रयास के बिना असंभव है |
भारतीय प्रबंधन संस्थान अहमदाबाद | विद्या विनियोगाद्विकास: | |
भारतीय प्रबंधन संस्थान बंगलौर | तेजस्वि नावधीतमस्तु | हमारा ज्ञान तेजवान बनें |
भारतीय प्रबंधन संस्थान कोझीकोड | योगः कर्मसु कौशलम् | परिश्रम, उत्कृष्टता का मार्ग है |
भारतीय सांख्यिकी संस्थान | भिन्नेष्वेकस्य दर्शनम् | अनेकता में एकता |
केन्द्रीय विद्यालय | तत् त्वं पूषन् अपावृणु | हे ईश्वर, आप उसे अनावृत्त कीजिए (=ज्ञान पर छाए आवरण को हटाइए)। |
मदन मोहन मालवीय अभियांत्रिकी महाविद्यालय, गोरखपुर | योगः कर्मसु कौशलम् | परिश्रम, उत्कृष्टता का मार्ग है |
मोतीलाल नेहरू राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, इलाहाबाद | सिद्धिर्भवति कर्मजा | सफ़लता का मूलमंत्र कठिन परिश्रम है |
राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् (एन॰सी॰ई॰आर॰टी) | विद्ययाऽमृतमश्नुते | विद्या से अमृत की प्राप्ति होती है |
इंडिया विश्वविद्यालय का राष्ट्रीय विधि विद्यालय | धर्मो रक्षति रक्षितः | जो धर्म की रक्षा करते हैं, वे धर्म द्वारा रक्षित होते हैं |
संपूणानंद संस्कृत विश्वविद्यालय | श्रुतं मे गोपय | |
श्री सत्य सांई विश्वविद्यालय | सत्यं वद् धर्मं चर | सत्य बोलें, सत्य के मार्ग पर चलें |
श्री वैंकटेश्वर विश्वविद्यालय | ज्ञानं सम्यग् वेक्षणम् | |
संत स्टीफन महाविद्यालय, दिल्ली | सत्यमेव विजयते नानृतम् | सत्य ही सदैव विजयी होता है, असत्य नहीं। |
कालीकट विश्वविद्यालय | निर्मय कर्मणा श्री | |
कोलंबो विश्वविद्यालय | बुद्धि: सर्वत्र ब्राजते | |
दिल्ली विश्वविद्यालय | निष्ठा दृष्टि: सत्यम् | |
केरल विश्वविद्यालय | कर्मणि व्याज्यते प्रज्ञा | |
मोराटुवा विश्वविद्यालय (University of Moratuwa) | विद्यैव सर्वधनम् | विद्या सबसे बड़ा धन है |
पेरादेनिया विश्वविद्यालय (University of Peradeniya) | सर्वस्य लोचनं शास्त्रम् | ज्ञान सभी का नेत्र है |
राजस्थान विश्वविद्यालय | धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा | |
विश्वेश्वरैया राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, नागपुर | योग: कर्मसु कौशलम् | परिश्रम, उत्कृष्टता का मार्ग है |
पश्चिम बंगाल राष्ट्रीय न्यायिक विज्ञान विश्वविद्यालय | युक्तिहीने विचारे तु धर्महानि: प्रजायते |
संस्कृत और अन्य भाषाएँ
संस्कृत भारत की कई लिपियों में लिखी जाती रही है, लेकिन आधुनिक युग में देवनागरी लिपि के साथ इसका ख़ास रिश्ता है। देवनागरी लिपि असल में संस्कृत के लिये ही बनी है, इसलिये इसमें हरेक चिह्न के लिये एक और सिर्फ़ एक ही ध्वनि है। देवनागरी में १२ स्वर और ३४ व्यंजन हैं। देवनागरी से रोमन लिपि में लिप्यन्तरण के लिये दो पद्धतियाँ अधिक प्रचलित हैं : IAST और ITRANS. शून्य, एक या अधिक व्यंजनों और एक स्वर के मेल से एक अक्षर बनता है।
संस्कृत में ऐ दो स्वरों का युग्म होता है और "अ-इ" या "आ-इ" की तरह बोला जाता है। इसी तरह औ "अ-उ" या "आ-उ" की तरह बोला जाता है।
इसके अलावा हिन्दी और संस्कृत में ये वर्णाक्षर भी स्वर माने जाते हैं :
नोट करें :
२) इसकी सुस्पष्ट व्याकरण और वर्णमाला की वैज्ञानिकता के कारण सर्वश्रेष्ठता भी स्वयं सिद्ध है।
३) सर्वाधिक महत्वपूर्ण साहित्य की धनी होने से इसकी महत्ता भी निर्विवाद है।
४) इसे देवभाषा माना जाता है।
५) संस्कृत केवल स्वविकसित भाषा नहीं बल्कि संस्कारित भाषा भी है अतः इसका नाम संस्कृत है। केवल संस्कृत ही एकमात्र भाषा है जिसका नामकरण उसके बोलने वालों के नाम पर नहीं किया गया है। संस्कृत को संस्कारित करने वाले भी कोई साधारण भाषाविद् नहीं बल्कि महर्षि पाणिनि, महर्षि कात्यायन और योग शास्त्र के प्रणेता महर्षि पतंजलि हैं। इन तीनों महर्षियों ने बड़ी ही कुशलता से योग की क्रियाओं को भाषा में समाविष्ट किया है। यही इस भाषा का रहस्य है।
६) शब्द-रूप - विश्व की सभी भाषाओं में एक शब्द का एक या कुछ ही रूप होते हैं, जबकि संस्कृत में प्रत्येक शब्द के 25 रूप होते हैं।
७) द्विवचन - सभी भाषाओं में एक वचन और बहु वचन होते हैं जबकि संस्कृत में द्विवचन अतिरिक्त होता है।
८) सन्धि - संस्कृत भाषा की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है सन्धि। संस्कृत में जब दो शब्द निकट आते हैं तो वहाँ सन्धि होने से स्वरूप और उच्चारण बदल जाता है।
९) इसे कम्प्यूटर और कृत्रिम बुद्धि के लिये सबसे उपयुक्त भाषा माना जाता है।
१०) शोध से ऐसा पाया गया है कि संस्कृत पढ़ने से स्मरण शक्ति बढ़ती है।
११) संस्कृत वाक्यों में शब्दों को किसी भी क्रम में रखा जा सकता है। इससे अर्थ का अनर्थ होने की बहुत कम या कोई भी सम्भावना नहीं होती। ऐसा इसलिये होता है क्योंकि सभी शब्द विभक्ति और वचन के अनुसार होते हैं और क्रम बदलने पर भी सही अर्थ सुरक्षित रहता है। जैसे - अहं गृहं गच्छामि या गच्छामि गृहं अहम् दोनो ही ठीक हैं।
१२) संस्कृत विश्व की सर्वाधिक 'पूर्ण' (perfect) एवं तर्कसम्मत भाषा है।
१३) देवनागरी एवं संस्कृत ही दो मात्र साधन हैं जो क्रमश: अंगुलियों एवं जीभ को लचीला बनाते हैं। इसके अध्ययन करने वाले छात्रों को गणित, विज्ञान एवं अन्य भाषाएँ ग्रहण करने में सहायता मिलती है।
१४) संस्कृत भाषा में साहित्य की रचना कम से कम छह हजार वर्षों से निरन्तर होती आ रही है। इसके कई लाख ग्रन्थों के पठन-पाठन और चिन्तन में भारतवर्ष के हजारों पुश्त तक के करोड़ों सर्वोत्तम मस्तिष्क दिन-रात लगे रहे हैं और आज भी लगे हुए हैं। पता नहीं कि संसार के किसी देश में इतने काल तक, इतनी दूरी तक व्याप्त, इतने उत्तम मस्तिष्क में विचरण करने वाली कोई भाषा है या नहीं। शायद नहीं है।
स्वर
ये स्वर संस्कृत के लिये दिये गये हैं। हिन्दी में इनके उच्चारण थोड़े अलग होते हैं।वर्णाक्षर | “प” के साथ मात्रा | IPA उच्चारण | "प्" के साथ उच्चारण | IAST समतुल्य | अंग्रेज़ी समतुल्य | हिन्दी में वर्णन |
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अ | प | / ə / | / pə / | a | short or long en:Schwa: as the a in above or ago | बीच का मध्य प्रसृत स्वर |
आ | पा | / α: / | / pα: / | ā | long en:Open back unrounded vowel: as the a in father | दीर्घ विवृत पश्व प्रसृत स्वर |
इ | पि | / i / | / pi / | i | short en:close front unrounded vowel: as i in bit | ह्रस्व संवृत अग्र प्रसृत स्वर |
ई | पी | / i: / | / pi: / | ī | long en:close front unrounded vowel: as i in machine | दीर्घ संवृत अग्र प्रसृत स्वर |
उ | पु | / u / | / pu / | u | short en:close back rounded vowel: as u in put | ह्रस्व संवृत पश्व वर्तुल स्वर |
ऊ | पू | / u: / | / pu: / | ū | long en:close back rounded vowel: as oo in school | दीर्घ संवृत पश्व वर्तुल स्वर |
ए | पे | / e: / | / pe: / | e | long en:close-mid front unrounded vowel: as a in game (not a diphthong) | दीर्घ अर्धसंवृत अग्र प्रसृत स्वर |
ऐ | पै | / ai / | / pai / | ai | long en:diphthong: as ei in height | दीर्घ द्विमात्रिक स्वर |
ओ | पो | / ο: / | / pο: / | o | long en:close-mid back rounded vowel: as o in tone (not a diphthong) | दीर्घ अर्धसंवृत पश्व वर्तुल स्वर |
औ | पौ | / au / | / pau / | au | long en:diphthong: as ou in house | दीर्घ द्विमात्रिक स्वर |
इसके अलावा हिन्दी और संस्कृत में ये वर्णाक्षर भी स्वर माने जाते हैं :
- ऋ -- आधुनिक हिन्दी में "रि" की तरह, संस्कृत में American English syllabic / r / की तरह
- ॠ -- केवल संस्कृत में (दीर्घ ऋ)
- ऌ -- केवल संस्कृत में (syllabic retroflex l)
- ॡ -- केवल संस्कृत में (दीर्घ ऌ)
- अं -- आधे न्, म्, ङ्, ञ्, ण् के लिये या स्वर का नासिकीकरण करने के लिये
- अँ -- स्वर का नासिकीकरण करने के लिये (संस्कृत में नहीं उपयुक्त होता)
- अः -- अघोष "ह्" (निःश्वास) के लिये
व्यंजन
जब कोई स्वर प्रयोग नहीं हो, तो वहाँ पर 'अ' माना जाता है । स्वर के न होने को हलन्त् अथवा विराम से दर्शाया जाता है । जैसे कि क् ख् ग् घ् ।Plosives / स्पर्श | |||||
अल्पप्राण अघोष | महाप्राण अघोष | अल्पप्राण घोष | महाप्राण घोष | नासिक्य | |
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कण्ठ्य | क / kə / k; English: skip | ख / khə / kh; English: cat | ग / gə / g; English: game | घ / gɦə / gh; Aspirated /g/ | ङ / ŋə / n; English: ring |
तालव्य | च / cə / or / tʃə / ch; English: chat | छ / chə / or /tʃhə/ chh; Aspirated /c/ | ज / ɟə / or / dʒə / j; English: jam | झ / ɟɦə / or / dʒɦə / jh; Aspirated /ɟ/ | ञ / ɲə / n; English: finch |
मूर्धन्य | ट / ʈə / t; American Eng: hurting | ठ / ʈhə / th; Aspirated /ʈ/ | ड / ɖə / d; American Eng: murder | ढ / ɖɦə / dh; Aspirated /ɖ/ | ण / ɳə / n; American Eng: hunter |
दन्त्य | त / t̪ə / t; Spanish: tomate | थ / t̪hə / th; Aspirated /t̪/ | द / d̪ə / d; Spanish: donde | ध / d̪ɦə / dh; Aspirated /d̪/ | न / nə / n; English: name |
ओष्ठ्य | प / pə / p; English: spin | फ / phə / ph; English: pit | ब / bə / b; English: bone | भ / bɦə / bh; Aspirated /b/ | म / mə / m; English: mine |
Non-Plosives / स्पर्शरहित | ||||
तालव्य | मूर्धन्य | दन्त्य/ वर्त्स्य | कण्ठोष्ठ्य/ काकल्य | |
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अन्तस्थ | य / jə / y; English: you | र / rə / r; Scottish Eng: trip | ल / lə / l; English: love | व / ʋə / v; English: vase |
ऊष्म/ संघर्षी | श / ʃə / sh; English: ship | ष / ʂə / sh; Retroflex /ʃ/ | स / sə / s; English: same | ह / ɦə / or / hə / h; English behind |
- इनमें से ळ (मूर्धन्य पार्विक अन्तस्थ) एक अतिरिक्त वयंजन है जिसका प्रयोग हिन्दी में नहीं होता है। मराठी और वैदिक संस्कृत में इसका प्रयोग किया जाता है।
- संस्कृत में ष का उच्चारण ऐसे होता था : जीभ की नोंक को मूर्धा (मुँह की छत) की ओर उठाकर श जैसी आवाज़ करना। शुक्ल यजुर्वेद की माध्यंदिनि शाखा में कुछ वाक्यों में ष का उच्चारण ख की तरह करना मान्य था। आधुनिक हिन्दी में ष का उच्चारण पूरी तरह श की तरह होता है।
- हिन्दी में ण का उच्चारण ज़्यादातर ड़ँ की तरह होता है, यानि कि जीभ मुँह की छत को एक ज़ोरदार ठोकर मारती है। हिन्दी में क्षणिक और क्शड़िंक में कोई अंतर नहीं है, परन्तु संस्कृत में ण का उच्चारण न की तरह बिना ठोकर मारे होता था, अंतर केवल इतना कि जीभ ण के समय मुँह की छत को कोमलता से छूती है।
संस्कृत भाषा की विशेषताएँ
१) संस्कृत, विश्व की सबसे पुरानी पुस्तक (वेद) की भाषा है। इसलिये इसे विश्व की प्रथम भाषा मानने में कहीं किसी संशय की संभावना नहीं है।२) इसकी सुस्पष्ट व्याकरण और वर्णमाला की वैज्ञानिकता के कारण सर्वश्रेष्ठता भी स्वयं सिद्ध है।
३) सर्वाधिक महत्वपूर्ण साहित्य की धनी होने से इसकी महत्ता भी निर्विवाद है।
४) इसे देवभाषा माना जाता है।
५) संस्कृत केवल स्वविकसित भाषा नहीं बल्कि संस्कारित भाषा भी है अतः इसका नाम संस्कृत है। केवल संस्कृत ही एकमात्र भाषा है जिसका नामकरण उसके बोलने वालों के नाम पर नहीं किया गया है। संस्कृत को संस्कारित करने वाले भी कोई साधारण भाषाविद् नहीं बल्कि महर्षि पाणिनि, महर्षि कात्यायन और योग शास्त्र के प्रणेता महर्षि पतंजलि हैं। इन तीनों महर्षियों ने बड़ी ही कुशलता से योग की क्रियाओं को भाषा में समाविष्ट किया है। यही इस भाषा का रहस्य है।
६) शब्द-रूप - विश्व की सभी भाषाओं में एक शब्द का एक या कुछ ही रूप होते हैं, जबकि संस्कृत में प्रत्येक शब्द के 25 रूप होते हैं।
७) द्विवचन - सभी भाषाओं में एक वचन और बहु वचन होते हैं जबकि संस्कृत में द्विवचन अतिरिक्त होता है।
८) सन्धि - संस्कृत भाषा की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है सन्धि। संस्कृत में जब दो शब्द निकट आते हैं तो वहाँ सन्धि होने से स्वरूप और उच्चारण बदल जाता है।
९) इसे कम्प्यूटर और कृत्रिम बुद्धि के लिये सबसे उपयुक्त भाषा माना जाता है।
१०) शोध से ऐसा पाया गया है कि संस्कृत पढ़ने से स्मरण शक्ति बढ़ती है।
११) संस्कृत वाक्यों में शब्दों को किसी भी क्रम में रखा जा सकता है। इससे अर्थ का अनर्थ होने की बहुत कम या कोई भी सम्भावना नहीं होती। ऐसा इसलिये होता है क्योंकि सभी शब्द विभक्ति और वचन के अनुसार होते हैं और क्रम बदलने पर भी सही अर्थ सुरक्षित रहता है। जैसे - अहं गृहं गच्छामि या गच्छामि गृहं अहम् दोनो ही ठीक हैं।
१२) संस्कृत विश्व की सर्वाधिक 'पूर्ण' (perfect) एवं तर्कसम्मत भाषा है।
१३) देवनागरी एवं संस्कृत ही दो मात्र साधन हैं जो क्रमश: अंगुलियों एवं जीभ को लचीला बनाते हैं। इसके अध्ययन करने वाले छात्रों को गणित, विज्ञान एवं अन्य भाषाएँ ग्रहण करने में सहायता मिलती है।
१४) संस्कृत भाषा में साहित्य की रचना कम से कम छह हजार वर्षों से निरन्तर होती आ रही है। इसके कई लाख ग्रन्थों के पठन-पाठन और चिन्तन में भारतवर्ष के हजारों पुश्त तक के करोड़ों सर्वोत्तम मस्तिष्क दिन-रात लगे रहे हैं और आज भी लगे हुए हैं। पता नहीं कि संसार के किसी देश में इतने काल तक, इतनी दूरी तक व्याप्त, इतने उत्तम मस्तिष्क में विचरण करने वाली कोई भाषा है या नहीं। शायद नहीं है।
भारत और विश्व के लिए संस्कृत का महत्त्व
- संस्कृत सभी भारतीय भाषाओं की माता है। इनकी अधिकांश शब्दावली या तो संस्कृत से ली गयी है या संस्कृत से प्रभावित है। पूरे भारत में संस्कृत के अध्ययन-अध्यापन से भारतीय भाषाओं में अधिकाधिक एकरूपता आयेगी जिससे भारतीय एकता बलवती होगी। यदि इच्छा-शक्ति हो तो संस्कृत को हिब्रू की भाँति पुनः प्रचलित भाषा भी बनाया जा सकता है।
- हिन्दू, बौद्ध, जैन आदि धर्मों के प्राचीन धार्मिक ग्रन्थ संस्कृत में हैं।
- हिन्दुओं के सभी पूजा-पाठ और धार्मिक संस्कार की भाषा संस्कृत ही है।
- हिन्दुओं, बौद्धों और जैनों के नाम भी संस्कृत पर आधारित होते हैं।
- भारतीय भाषाओं की तकनीकी शब्दावली भी संस्कृत से ही व्युत्पन्न की जाती है।
- संस्कृत, भारत को एकता के सूत्र में बाँधती है।
- संस्कृत का प्राचीन साहित्य अत्यन्त प्राचीन, विशाल और विविधतापूर्ण है। इसमें अध्यात्म, दर्शन, ज्ञान-विज्ञान, और साहित्य का खजाना है। इसके अध्ययन से ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति को बढ़ावा मिलेगा।
- संस्कृत को कम्प्यूटर के लिये (कृत्रिम बुद्धि के लिये) सबसे उपयुक्त भाषा माना जाता है।
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